Thursday 24 September 2015

सिलिकॉन वैली का टॉप टैलेंट भारतीय ही क्यों?


सिलिकॉन वैली का टॉप टैलेंट भारतीय ही क्यों?

इस दौरान वे सिलिकॉन वैली में काम करने वाले भारतीय पेशेवरों से मिलेंगे और उन्हें संबोधित भी करेंगे. दरअसल बीते कुछ सालों में अमरीका की सूचना और तकनीक की दुनिया में भारतीयों का दबदबा काफी बढ़ा है.

इंटरनेट की दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में एक गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई भारतीय मूल हैं. पहली बार कोई भारतीय गूगल में शीर्ष पद तक पहुंचा है लेकिन हकीकत ये भी है कि गूगल का शुरुआत से ही भारत से नाता रहा है.

1998 में स्टैंफर्ड यूनिवर्सिटी में सर्जेइ ब्रिन और लैरी पेज ने अपने शिक्षक टैरी विनोग्रैड और राजीव मोटवानी के साथ गूगल की परिकल्पना विकसित की थी. भारत के मोटवानी को गूगल का सबसे पहला कर्मचारी माना जाता है.
शिखर पर सुंदर पिचाई

मोटवानी और पिचाई दोनों इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ टेक्नालॉजी (आईआईटी) से निकले और गूगल में शीर्ष स्तर की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है.

वैसे ये बात केवल सुंदर पिचाई और मोटवानी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अमरीका की तकनीकी दुनिया में भारतीयों की मौजूदगी लगातार बढ़ रही है.

अमरीका में लगभग एक तिहाई स्टार्ट अप भारतीय लाँच कर रहे हैं. इतने स्टार्टअप वहां रह रहे दूसरे सात ग़ैर-अमरीकी समुदाय मिलकर भी लाँच नहीं कर पा रहे हैं.

2011 के आंकड़ों के मुताबिक, अमरीका में भारतीय समुदाय सबसे ज़्यादा औसत सालाना आमदनी वाला समूह है. अमरीका में रह रहे भारतीय साल में 86,135 डॉलर कमाते हैं जबकि अमरीका की औसत आय 51,914 डॉलर सालाना है.

हालांकि भारतीय समुदाय को यहां तक पहुंचने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. अब पिचाई का ही उदाहरण देखिए.

चेन्नई के एक इंजीनियर के बेटे पिचाई जब अमरीका गए तो हवाई टिकट उनके पिता के सालाना वेतन के बराबर था. पैसे की तंगी की वजह से वे छह महीने तक अपनी होने वाली पत्नी को फ़ोन नहीं कर पाए थे.

2004 में गूगल से जुड़ने से पहले पिचाई मैनेजमेंट कंसल्टेंट के तौर पर मैकेंजी और माइक्रोप्रोसेसर सप्लायर एप्लायड मैटेरियल्स के साथ कम कर चुके थे. गूगल के सीईओ बनने से पहले पिचाई ने वेब ब्राउज़र गूगल क्रोम की स्थापना की थी.

दरअसल पिचाई जैसे भारतीय लोगों के बढ़ते दबदबे की सबसे बड़ी वजह यही है कि अमरीकी सिलिकॉन वैली में शीर्ष स्तर पर जो कार्य-संस्कृति है उसमें बड़ा बदलाव आया है.
भारतीयों का दबदबा

पहले के सीईओ काफी इगो वाले, कर्मचारियों के साथ सख्ती से पेश आने वाले और काफी हद तक निर्णायक फ़ैसले लेने वाले होते थे जो गुणवत्ता सुधारने के लिए, प्रतिस्पर्धी माहौल बनाने के लिए और कर्मचारियों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जान-बूझकर टकराव का रास्ता अपनाते थे.

अब प्रबंधन का अंदाज बदला है और टकराव के बदले, उसे नजरअंदाज़ करके बेहतर काम करने का रास्ता अपनाया जा रहा है. इस संस्कृति में भारतीय सीईओ एकदम फ़िट साबित हो रहे हैं.

यही वजह है कि माइक्रोसॉफ़्ट ने सत्या नडेला को अपना सीईओ बनाया है. स्टीव बॉमर के माइक्रोसॉफ़्ट छोड़ने का बाद उन्हें सीईओ बनाया गया.

इसके अलावा जापान के टेलीकॉम मल्टीनेशनल सॉफ़्टबैंक ने गूगल के निकेश अरोड़ा को अपना प्रेसीडेंट बनाया है.

एडोब को शांतानु नारायण चला रहे हैं.

आईटी की विशालकाय कंसल्टेंसी कंपनी कॉग्नीजेंट को फ्रांसिस्को डिसूज़ा लीड कर रहे हैं. कंप्यूटर मेमरी की बड़ी कंपनी सैनडिस्क के मुखिया संजय मेहरोत्रा भी भारतीय ही हैं.
स्टार्टअप्स में अव्वल

केवल टेक्नॉलाजी की बड़ी कंपनियों पर ही भारतीयों का दबदबा नहीं हैं. बल्कि शराब का कारोबार करने वाली सबसे बड़ी कंपनी डियाजियो के सीईओ इवान मेनेजेस भी भारतीय मूल के हैं.
मास्टरकार्ड के बॉस अजय बंगा भी भारतीय हैं. पेप्सी की सीईओ इंद्रा नूयी भी टॉप तक पहुंचने वाली भारतीयों में शामिल हैं.

सिलिकॉन वैली में भारतीय वर्क फोर्स की आबादी कुल मानव संसाधनों में 6 फ़ीसदी है लेकिन दूसरी ओर सिलिकॉन वैली के 15 फ़ीसदी स्टार्टअप्स के संस्थापक भारतीय हैं.

अमरीका के सिंगुलरिटी, स्टैनफोर्ड और ड्यूक यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले प्रोफेसर विवेक वाधवा के एक अध्ययन के मुताबिक ब्रिटेन, चीन, ताइवान, जापान मिलकर जितने स्टार्ट अप शुरू करते हैं ये उससे भी अधिक है. इस अध्ययन के मुताबिक अमरीका की एक-तिहाई स्टार्टअप्स भारतीय लोगों ने शुरू किए हैं.

ऐसे में सवाल ये है कि भारतीय मूल के लोग अमरीका में इतने कामयाब क्यों हो रहे हैं?
कामयाबी की वजह

इसकी एक बड़ी वजह भारतीयों का अंग्रेजी ज्ञान है. ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चलते भारत में उच्च शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में ही उपलब्ध हैं, ऐसे भारतीय पेशेवरों को अलग से अंग्रेजी सीखने में मेहनत नहीं करनी होती है.

सिलिकॉन वैली में नेटवर्किंग संस्था चला रहे द इंडस इंटरप्रेन्योर्स के अध्यक्ष वेंकटेश शुक्ला इसकी एक दूसरी वजह भी मानते हैं.

वे कहते हैं, "इनमें से ज़्यादातर लोग भारत से तब आए थे जब वहां सीमित अवसर उपलब्ध थे. अमरीकी की वीज़ा नीतियों के कारण सिर्फ़ बेहतरीन प्रतिभाएं ही यहां आ सकीं. तो यहां भारत के सबसे प्रतिभाशाली लोग मौजूद हैं."

इसके अलावा कुछ और पहलू हैं जिसके चलते भारतीय अच्छा कर रहे हैं. इन्हीं पहलुओं में विविधता भी शामिल है.

वेंकटेश शुक्ला कहते हैं, "अगर आप भारत में पले-बढ़े हों तो विविधरंगी समाज आपके लिए कोई नई बात नहीं होती. सिलिकॉन वैली में ज़्यादा राजस्व और बेहतर उत्पाद की बात होती है, आप कैसा दिखते हैं और क्या बोलते हैं, इसका कोई मतलब नहीं होता."

कल्चरल डीएनए के लेखक गुरनेक बैंस कहते हैं, "ग्लोबलाइज़ेशन के मनोविज्ञान ने विविधता की समझ को भी बेहतर बनाया है. भारतीय विविध उत्पाद, विविध वास्तविकता और विविधरंगी नज़रिए को समझते हैं."

बैंस कहते हैं, "इसके चलते भारतीय तेज़ी से बदलती आईटी की दुनिया की चुनौतियों को संभालने में सक्षम हैं."

बेंस के मुताबिक अमरीकी सोचने का काम ज़्यादा करते हैं लेकिन योजना को अमल में लाने में भारतीय काफ़ी आगे हैं.

बैंस के फर्म वायएससी के 200 से ज़्यादा सीईओ के आकलन और विश्लेषण के दौरान ये बात भी सामने आई कि भारतीय कुछ हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं और उनमें बौद्धिकता का एक स्तर भी होता है.
ख़ामियां भी हैं मगर...

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है हर कोई परफैक्ट ही होता है. तमाम गुणों के बावजूद भारतीयों में एक बड़ी खामी भी है. बैंस के अध्ययन के मुताबिक, "भारतीय टीम वर्क में सबसे कमज़ोर हैं." इस पहलू में अमरीकी और यूरोपीय सबसे बेहतर हैं.

हालांकि जो भारतीय लंबे समय से बाहर रहे हैं वो टीम वर्क के गुर भी सीख रहे हैं.

विवेक वाधवा कहते हैं, "भारत के बच्चे माइक्रोसॉफ्ट और गूगल का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं और वे इन कंपनियों के भारतीय सीईओ को भी देख रहे हैं. यह काफी प्रेरक है."

वाधवा के मुताबिक भारतीय पेशेवरों को अब अपनी क्षमता दिखाने के लिए अमरीका जाने की बाध्यता भी नहीं है क्योंकि भारत अब अमरीका और चीन के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है.

वाधवा कहते हैं, "अगले तीन से पांच साल के बीच भारत में करीब 50 करोड़ की आबादी स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल करने लगेगी. टेक क्रांति यहां दिखाई देगी. भारत से कई अरब डॉलर वाली कंपनियां निकलेंगी. अब अवसर भारत में मौजूद हैं."

Wednesday 23 September 2015

डेंगू विषाणु कैसे फैलता है



डेंगू विषाणु कैसे फैलता है

वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि डेंगू विषाणु कैसे फैलता है और वे यह समझने के बहुत करीब हैं कि पहला डेंगू संक्रमण अक्सर हल्का क्यों होता है जबकि दूसरी बार संक्रमण प्राणघातक होता है।

अनुसंधानकर्ताओं का मानना है कि संक्रमण के जवाब में हमारे शरीर में प्रतिरक्षी पैदा होते हैं, लेकिन इस दौरान डेंगू के संक्रमण से जुड़े कुछ नयी तरह के विषाणु भी चुपचाप कोशिकाओं में प्रवेश कर जाते हैं, जिनसे हमारी प्रतिरोधक प्रणाली अनभिज्ञ बनी रहती है। बाद में मौका मिलने पर यह विषाणु सक्रिय हो जाते हैं और चूंकि प्रतिरोधक प्रणाली इनसे अनजान होती है इसलिए शरीर में इनके प्रतिरक्षी नहीं बन पाते और बीमारी प्राणघातक हो जाती है।


यहां यह महत्वपूर्ण है कि जब हम संक्रमित होते हैं तो हमारी प्रतिरोधक प्रणाली प्रतिरक्षी को संक्रमण की प्रकृति की पहचान करने के लिए भेजती है और प्रतिरक्षी संक्रमण की पहचान करने के बाद ही उसके प्रतिरोध का इंतजाम करते हैं। डेंगू के संक्रमण के विषाणुओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और यह एक बार प्रतिरोधक प्रणाली के घेरे में आने के बाद एक दूसरे रूप में छिपकर कोशिकाओं तक पहुंचता है और प्रतिरोधक प्रणाली को खबर होने तक मरीज को प्राणघातक नुकसान पहुंचा देता है।

डेंगू के बारे में एक असामान्य पहलू यह है कि कुछ मामलों में जब कोई व्यक्ति दूसरी बार संक्रमित होता है तो संक्रमण से प्रतिरक्षा के बजाय बीमारी ज्यादा गंभीर हो सकती है। हालत यह है कि डेंगू एंटीजेनिक काटरेग्राफी कंसोर्टियम के अनुसंधानकर्ताओं ने डेंगू के जो 148 नमूने एकत्र किए, उनमें 47 तरह के विषाणु पाए गए। कहने को चिकित्सा जगत में डेंगू के चार प्रकार प्रचलन में हैं और इन चार प्रकारों में भी प्रत्येक डेंगू के विषाणु में काफी विभिन्नताएं हैं। इससे पता चलता है कि जब कोई व्यक्ति एक तरह के डेंगू से पीड़ित होता है तो उसी तरह के दूसरे विषाणु के खिलाफ प्रतिरोध में असमर्थ होता है। यह अध्ययन जरनल साईंस में प्रकाशित हुआ है।

Tuesday 1 September 2015

World Hindi Conference Special (हिन्दी भारत की मातृभाषा है। आज हम आजाद हैं )

10th World Hindi Conference Bhopal (M.P.) 10,11,12 September 2015

हिन्दी भारत की मातृभाषा है। आज हम आजाद हैं लेकिन फिर भी हिंदी को आजाद भारत में वह स्थान नहीं मिला जो इसे मिलना चाहिए था। विश्व हिंदी सम्मेलन है इस मौके पर आइए एक लहर पैदा करें अपनी मातृभाषा को सम्मान दिलाने के लिए.!

14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने निर्णय लिया कि हिंदी भारत की राजभाषा होगी, तभी से प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। हिंदी भारत में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। लेकिन आज के दौर में हिंदी अपना अस्तित्व खोती जा रही है। आइए हम सब ये प्रण लें कि हम हिंदी बोलने में संकोच नहीं करेंगे और गर्व से हिंदी भाषा का उपयोग करेंगे..।



हिन्दी की विशेषताएँ एवं शक्ति



हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए। यदि ऐसा किया जा सके तो सहज ही सब की समझ में यह आ जाएगा कि -

1 संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है।


2 वह सबसे अधिक सरल भाषा है।

3 वह सबसे अधिक लचीली भाषा है।

4 वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन है।

5 वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है।

6 हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है।

7 हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्द-रचना-सामर्थ्य विरासत में मिली है।
वह देशी भाषाओं एवं अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है।

8 हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधिक है।

9 हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है।

10 हिन्दी आम जनता से जुड़ी भाषा है तथा आम जनता हिन्दी से जुड़ी हुई है। हिन्दी कभी राजाश्रय की मोहताज नहीं रही।

11 भारत के स्वतंत्रता-संग्राम की वाहिका और वर्तमान में देशप्रेम का अमूर्त-वाहन

12 भारत की सम्पर्क भाषा

13 भारत की राजभाषा



                                                 हिन्दी की विशेषताएँ

हिंदी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है। इसे नागरी नाम से भी पुकारा जाता है। देवनागरी में 11 स्वर और 33 व्यंजन होते हैं और इसे बाएं से दायें और लिखा जाता है।


                                             हिन्दी की शैलियाँ

हिन्दी क्षेत्र तथा सीमावर्ती भाषाएँ


भाषाविदों के अनुसार हिन्दी के चार प्रमुख रूप या शैलियाँ हैं :


(१) उच्च हिन्दी - हिन्दी का मानकीकृत रूप, जिसकी लिपि देवनागरी है। इसमें संस्कृत भाषा के कई शब्द है, जिन्होंने फ़ारसी और अरबी के कई शब्दों की जगह ले ली है। इसे शुद्ध हिन्दी भी कहते हैं। आजकल इसमें अंग्रेज़ी के भी कई शब्द आ गये हैं (ख़ास तौर पर बोलचाल की भाषा में)। यह खड़ीबोली पर आधारित है, जो दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में बोली जाती थी।



(२) दक्खिनी - हिन्दी का वह रूप जो हैदराबाद और उसके आसपास की जगहों में बोला जाता है। इसमें फ़ारसी-अरबी के शब्द उर्दू की अपेक्षा कम होते हैं।



(३) रेख़्ता - उर्दू का वह रूप जो शायरी में प्रयुक्त होता है।



(४) उर्दू - हिन्दी का वह रूप जो देवनागरी लिपि के बजाय फ़ारसी-अरबी लिपि में लिखा जाता है। इसमें संस्कृत के शब्द कम होते हैं, और फ़ारसी-अरबी के शब्द अधिक। यह भी खड़ीबोली पर ही आधारित है।

हिन्दी और उर्दू दोनों को मिलाकर हिन्दुस्तानी भाषा कहा जाता है। हिन्दुस्तानी मानकीकृत हिन्दी और मानकीकृत उर्दू के बोलचाल की भाषा है। इसमें शुद्ध संस्कृत और शुद्ध फ़ारसी-अरबी दोनों के शब्द कम होते हैं और तद्भव शब्द अधिक। उच्च हिन्दी भारतीय संघ की राजभाषा है (अनुच्छेद ३४३, भारतीय संविधान)। यह इन भारतीय राज्यों की भी राजभाषा है : उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तरांचल, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली। इन राज्यों के अतिरिक्त महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल, पंजाब (भारत) और हिन्दी भाषी राज्यों से लगते अन्य राज्यों में भी हिन्दी बोलने वालों की अच्छी संख्या है। उर्दू पाकिस्तान की और भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर की राजभाषा है। यह लगभग सभी ऐसे राज्यों की सह-राजभाषा है; जिनकी मुख्य राजभाषा हिन्दी है।