International Court of Justice अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्र का प्रधान न्यायिक अंग है, और इस संघ के पांच मुख्य अंगों मे से एक है । इस न्यायालय ने अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय की जगह ले ली थी ।
1980 तक अंतर्राष्ट्रीय समाज इस न्यायालय का ज़्यादा प्रयोग नहीं करती थी, पर तब से अधिक देशों ने, विशेषतः विकासशील देशों ने, न्यायालय का प्रयोग करना शुरू किया है । फ़िर भी, कुछ अहम राष्ट्रों ने, जैसे कि संयुक्त राज्य, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों को निभाना नहीं समझा हुआ है । ऐसे देश हर निर्णय को निभाने का खुद निर्णय लेते है ।
सदस्य
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में समान्य सभा द्वारा 15 न्यायाधीश चुने चाते है । यह न्यायाधीश नौ साल के लिए चुने जाते है, और फ़िर से चुने जा सकते है । हर तीसरे साल इन 15 न्यायाधीशों में से पांच चुने जा सकत्ते है । इनकी सेवानिव्रति की आयु , कोई भी दो न्यायाधीश एक ही राष्ट्र के नहीं हो सकते है, और किसी न्यायाधीश की मौत पर उनकी जगह किसी समदेशी को दी जाती है । इन न्यायाधीशों को किसी और ओहदा रखना मना है । किसी एक न्यायाधीश को हताने के लिए बाकी के न्यायाधीशों का सर्वसम्मत निर्णय जरूरी है ।
निर्णय बहुमत निर्णय के अनुसार लिए जाते है । बहुमत से सहमती न्यायाधीश मिलकर एक विचार लिख सकते है, या अपने विचार अलग से लिख सकते है । बहुमत से विरुद्ध न्यायाधीश भी अपने खुद के विचार लिख सकते है ।
तदर्थ न्यायाधीश
जब किसी दो राष्ट्रों के बीच का संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के सामने आता है, वे राष्ट्र चाहे तो किसी समदेशी तदर्थ न्यायाधीश को नामजद कर सक्ती हैं । इस प्रक्रिया का कारण था कि वह देश जो न्यायालय में प्रतिनिधित्व नहीं है भी अपने संधर्षों के निर्णय अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को लेने दे ।
अधिकार-क्षेत्र
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अभियोग दो तरह के होते है ः विवादास्पद विषय तथा परामर्शी विचार ।
विवादास्पद विषय
इस तरह के मुकदमों में दोनो राज्य के लिए न्यायालय का निर्णय निभाना आवश्यक होता है । केवल राज्य ही विवादास्पद विषयों में शामिल हो सक्ते हैं ः व्यक्यियां, गैर सरकारी संस्थाएं, आदि ऐसे मुकदमों के हिस्से नहीं हो सकते हैं । ऐसे अभियोगों का निर्णय अंतराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा तब ही हो सकता है जब दोनो देश सहमत हो । इस सहमति को जताने के चार तरीके हैं ः
1. विशेष संचिद ः ऐसे मुकदमों में दोनो देश अपने आप निर्णय लेना अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपते हैं ।
2. माध्यमार्ग ः आज-कल की संधियों में अक्सर एक शर्त डाली जाती है जिसके अनुसार, अगर उस संधि के बारे में कोई संघर्ष उठे, तो अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को निर्णय लेने का अधिकार है ।
3. ऐच्छिक घोषणा ः राज्यों को अधिकार है कि वे चाहे तो न्यायालय के हर निर्णय को पहले से ही स्वीकृत करें ।
4. अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय का अधिकार ः क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय की जगह ली थी, जो भी मुकदमें अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में थे, वे सब अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में भी हैं ।
परामर्शी विचार
परामर्शी विचार दूसरा तरीका है किसी मुकदमें को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय तक पहुंचाना का । यह निर्णय सिर्फ न्यायालय की राय होते है, पर इन विचारों के सम्मान के कारण वह बहुत प्रभावशाली होते हैं ।
प्रवर्तन
संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों का धर्म है कि वे अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय के अनुसार आगे बढें । अगर कोई देश इन निर्णयों को स्वीकृत न करे, तो प्रवर्तन की ज़िम्मिदारी सुरक्षा परिषद पर पड़ती है । फ़िर सुरक्षा परिषद जैसे चाहे वैसे निर्णय या सिफ़ारिश घोषित कर सकता है ।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्र का प्रधान न्यायिक अंग है, और इस संघ के पांच मुख्य अंगों मे से एक है । इस न्यायालय ने अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय की जगह ले ली थी ।
1980 तक अंतर्राष्ट्रीय समाज इस न्यायालय का ज़्यादा प्रयोग नहीं करती थी, पर तब से अधिक देशों ने, विशेषतः विकासशील देशों ने, न्यायालय का प्रयोग करना शुरू किया है । फ़िर भी, कुछ अहम राष्ट्रों ने, जैसे कि संयुक्त राज्य, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों को निभाना नहीं समझा हुआ है । ऐसे देश हर निर्णय को निभाने का खुद निर्णय लेते है ।
सदस्य
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में समान्य सभा द्वारा 15 न्यायाधीश चुने चाते है । यह न्यायाधीश नौ साल के लिए चुने जाते है, और फ़िर से चुने जा सकते है । हर तीसरे साल इन 15 न्यायाधीशों में से पांच चुने जा सकत्ते है । इनकी सेवानिव्रति की आयु , कोई भी दो न्यायाधीश एक ही राष्ट्र के नहीं हो सकते है, और किसी न्यायाधीश की मौत पर उनकी जगह किसी समदेशी को दी जाती है । इन न्यायाधीशों को किसी और ओहदा रखना मना है । किसी एक न्यायाधीश को हताने के लिए बाकी के न्यायाधीशों का सर्वसम्मत निर्णय जरूरी है ।
निर्णय बहुमत निर्णय के अनुसार लिए जाते है । बहुमत से सहमती न्यायाधीश मिलकर एक विचार लिख सकते है, या अपने विचार अलग से लिख सकते है । बहुमत से विरुद्ध न्यायाधीश भी अपने खुद के विचार लिख सकते है ।
तदर्थ न्यायाधीश
जब किसी दो राष्ट्रों के बीच का संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के सामने आता है, वे राष्ट्र चाहे तो किसी समदेशी तदर्थ न्यायाधीश को नामजद कर सक्ती हैं । इस प्रक्रिया का कारण था कि वह देश जो न्यायालय में प्रतिनिधित्व नहीं है भी अपने संधर्षों के निर्णय अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को लेने दे ।
अधिकार-क्षेत्र
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अभियोग दो तरह के होते है ः विवादास्पद विषय तथा परामर्शी विचार ।
विवादास्पद विषय
इस तरह के मुकदमों में दोनो राज्य के लिए न्यायालय का निर्णय निभाना आवश्यक होता है । केवल राज्य ही विवादास्पद विषयों में शामिल हो सक्ते हैं ः व्यक्यियां, गैर सरकारी संस्थाएं, आदि ऐसे मुकदमों के हिस्से नहीं हो सकते हैं । ऐसे अभियोगों का निर्णय अंतराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा तब ही हो सकता है जब दोनो देश सहमत हो । इस सहमति को जताने के चार तरीके हैं ः
1. विशेष संचिद ः ऐसे मुकदमों में दोनो देश अपने आप निर्णय लेना अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपते हैं ।
2. माध्यमार्ग ः आज-कल की संधियों में अक्सर एक शर्त डाली जाती है जिसके अनुसार, अगर उस संधि के बारे में कोई संघर्ष उठे, तो अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को निर्णय लेने का अधिकार है ।
3. ऐच्छिक घोषणा ः राज्यों को अधिकार है कि वे चाहे तो न्यायालय के हर निर्णय को पहले से ही स्वीकृत करें ।
4. अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय का अधिकार ः क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय की जगह ली थी, जो भी मुकदमें अंतर्राष्ट्रीय न्याय के स्थाई न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में थे, वे सब अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में भी हैं ।
परामर्शी विचार
परामर्शी विचार दूसरा तरीका है किसी मुकदमें को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय तक पहुंचाना का । यह निर्णय सिर्फ न्यायालय की राय होते है, पर इन विचारों के सम्मान के कारण वह बहुत प्रभावशाली होते हैं ।
प्रवर्तन
संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों का धर्म है कि वे अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय के अनुसार आगे बढें । अगर कोई देश इन निर्णयों को स्वीकृत न करे, तो प्रवर्तन की ज़िम्मिदारी सुरक्षा परिषद पर पड़ती है । फ़िर सुरक्षा परिषद जैसे चाहे वैसे निर्णय या सिफ़ारिश घोषित कर सकता है ।
No comments:
Post a Comment